श्रीबाबा की तपोस्थलियाँ आज के पर्यपेक्ष में

श्रीबाबा ने दीर्घकाल तक गुजरात के वन्य क्षेत्रों में तप किया और दिव्य अनुभव प्राप्त किये। ‘नर्मदा तट के ब्रह्मर्षि’ पुस्तक में ब्योरेवार श्रीबाबा की नर्मदातट की यात्रा का जो कुछ, जितना विस्तार जानने को मिलता है, उसको मार्गदर्शन का स्त्रोत मानते हुए श्रीबाबा के दो भक्त द्वारिका – हर्षदमाता – सुदामापुरी (पोरबन्दर) – सोमनाथ पाटन – जूनागढ़ इस मार्ग पर पिछले महिने ही यात्रा करके लौटे है। यह वृतांत उन्ही के द्वारा प्रेषित किया गया है।

नर्मदातट के ब्रह्मर्षि (hereafter, NTB) पृ.8 तथा उससे आगे के पृष्ठों में जो नर्मदा परिक्रमा का वृतांत दिया गया है, तदनुसार हमने यह यात्रा द्वारिकाधीश से आरम्भ करी और वहाँ से नीचे आते गये। श्रीबाबा की इस सौराष्ट्र (गुजरात) की आध्यात्मिक यात्रा में विशेष ध्यान देने की बात यह है कि श्रीबाबा ने भगवान श्रीकृष्ण के सभी तीर्थक्षेत्रों का दर्शन किया, पूजा-अर्चना-सेवा और साधना करी थी।
द्वारिकाधीश के दर्शन की महिमा NTB में जितनी प्रकट करी है, सभी अनुयायीयों की जानकारी में है। किन्तु द्वारिका से गमन करने के पश्चात का वृतांत बहुत स्पष्ट नहीं है। इसलिये, हमने एकादशी पर्व के द्वारिका-दर्शन, पूजा-अर्चना करने के पश्चात श्रीबाबा के इंगित किये हुए यात्रा-मार्ग आरम्भ किया।
सबसे पहले हर्षदमाता (भगवान श्रीकृष्ण की कुलदेवी) का मन्दिर आया, तत्पश्चात पोरबन्दर अर्थात सुदामापुरी आयी, वहाँ से वेरावल (जहाँ सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का प्रसिद्ध तीर्थस्थान है और वहीं पर ‘भालका’ तीर्थक्षेत्र है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने पार्थिव देह त्याग किया था) और वेरावल से जूनागढ़ (जहाँ गिरनार पर्वत श्रन्खला आरम्भ होती है और जो महापुरुषों की सिद्ध-साधना का विशेष तपोवन है) के स्थान आये जहाँ श्रीबाबा ने गिरनार पर्वत के तल भाग तथा ऊपर भी, जहाँ आज भी अनेको गुप्त और अगम्य दुफ़ाएँ छानबीन करके पाई जाती है। श्रीबाबा ने कई स्थलो पर 5-6 वर्ष तक घोर साधना करी थी।
हरसिद्धि (हर्षद) माता तीर्थस्थल
द्वारिकाधीश के दर्शन करने और वहाँ कुछ समय बिताने के बाद श्रीबाबा 36 कि.मि. दक्षिण की ओर हरसिद्धि माता के स्थान पहुंचे थे। माता हरसिद्धि श्रीकृष्ण की कुलदेवी है। हर्षद गाँव में समुद्र किनारे एक छोटीसी पहाड़ी पर श्रीकृष्ण ने माता का मन्दिर स्वयं बनवाया था (देखें चित्र 1)। कालान्तर में एक नगर सेठ ने माता को पहाड़ी से नीचे पधारने और निवास करने की प्रार्थना करी, तब से इस पहाड़ी से सीधे नीचे ही हर्षदमाता का मन्दिर बनवाया गया (चित्र 2)। इस मान्यता या कहानी का खण्डन करते हुए किसी इतिहासकार ने बताया है कि पहाड़ी वाला मन्दिर माता का मन्दिर कभी नहीं था, क्योंकि शक्ति का मन्दिर पूर्वोन्मुख होता है। शिव का मन्दिर ही पश्चिममुखी होता है, जैसा कि यह पुरातन पहाड़ीवाला मन्दिर है। अफ़गानिस्तान के गजनी लुटेरे ने सोमनाथ के साथ-साथ अन्य शिव मन्दिरों को भी लूटा था और लिंग को विक्षिप्त किया था। यही इस शिव मन्दिर के साथ भी हुआ, तभी गर्भ-ग्रह में एक गहरा गढ्ढा है, जो शिवलिंग को उखाड़ लेने के पश्चात की अवस्था में है। बहरहाल, श्रीबाबा का देवी माता का साक्षात्कार हुआ था, इसलिये हमारी शद्धा तो हरसिद्धिमाता में ज्यों की त्यों ही रही। श्रीबाबा को माता ने बताया था कि वे रात्रिकाल में उज्जैन में विश्राम करती है। इसका महात्म्य यह है कि पूर्वकाल में उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य के घोर तप से माता प्रसन्न हुई और तब राजा ने उनसे उज्जैन आकर निवास करने को कहा था। तब माता ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करी और वचन दिया कि वे रात्रि का विश्राम उज्जैन में करेंगी और दिवसकाल में हर्षद में ही लौट आयेंगी (श्रीकृष्ण भगवान की मर्यादा भी इस प्रकार कायम रखी)। वर्तमान में भी वैसा-का-वैसा ही कार्यक्रम चल रहा है, कारण कि माता नितरोज प्रातः नौ बजे से कुछ पल पहले हर्षद पधार जाती है और आने का संकेत एक विशाल झूले को 5-6 मिनिट तक झुलाकर देती है (यह झूला पूजावाले स्थान से सटे एक छोटे कमरे में रखा है जहाँ न कोई पँखा है ना ही कोई बड़ी खिड़की, जो विशालकाय है और दो मनुष्यों के बैठने जितना बड़ा है)। प्रातः नौ बजे मन्दिर के द्वार खुलते है और पहले आये हुए श्रद्धालुओं में से करीब 30 जनों को माता के मुख्य प्रांगण में बैठाया जाता है (बाद में आनेवाले श्रद्धालु खुले चौक में से ही आरती में शामिल होते है)। यह आरती अत्यन्त रोमांचित चिदघोष के साथ पूरे एक घंटे तक चलती है; इस प्रयोजन में शामिल होना हमको अत्यन्त सौभाग्यशील लगा। मन्दिर के सौम्य-स्वभावी पंडितजि से जो, जैसी बाते हुई, जानकारी मिली, वह सब यहाँ प्रस्तुत करी जा रही है।

श्रीहरसिद्धिमाता का आज का पूजित मन्दिर

हरसिद्धि मन्दिर के गर्भगृह में एक तहखाना है, जो नये मन्दिर को जाता है
श्रीबाबा को हरसिद्धि माता ने दर्शन दिये थे और वरदान मांगने पर श्रीबाबा ने केवल उज्जैन में एक भण्डारे की व्यवस्था में अन्नसामर्ग्री की मांग ही करी थी। कृपावर्षिणी माता ने श्रीबाबा को अन्नपूर्णा का (अन्न सामग्री में बरक्कत और इच्छित काल व देश में अन्न प्रकट करना) सदा के लिये आशीर्वाद दिया था।
पोरबन्दर (सुदामापुरी)
हर्षद गाँव से चलकर (या उड़कर) श्रीबाबा सुदामापुरी पहुंचे, जो कि आज का पोरबन्दर शहर कहलाता है और जहाँ महात्मा गाँधी का जन्म हुआ था। पोरबन्दर में ही मुख्य सुदामा चौक जो कि बस स्थल से चलकर जाने जितनी दूरी पर स्थित है, वहाँ एक जमाने में श्रीबाबा गये थे। यह सुदामाजी का जन्म-स्थान है और आज भी सुचारु देखभाल के फ़लस्वरुप सही सलामत अवस्था में है। देखें चित्र 3।

5300 वर्ष पुराना सुदामा निवास जो सुदामा मन्दिर माना जाता है



सुदामाकाल की लखचौरासी परिक्र्मा का नवीन स्वरुप



सोमनाथ पाटन वेरावल जहाँ ज्योतिर्लिंग सोमनाथ महादेव विराजते है
श्रीबाबा की यह रहस्यमयी यात्रा समुद्रतट के साथ चलती रही और तत्पश्चात समुद्रतट स्थित मूलद्वारिका तीर्थस्थल पहुंचे थे, जो हर्षद गाँव से करीब 60 कि. मि. आगे दक्षिण की ओर है और वेरावल शहर के बाहरी भाग में स्थित है। मूल द्वारिका महाभारत काल का द्वारिका बताया जाता है, जिसका मुख्य स्वर्णिम नगर यहीं पर समुद्र में जल-मग्न हुआ था और इस बाबत कई बार प्रमाण भी मिले है, जब स्वर्ण निर्मित कुछ हल्की सी वस्तुएँ किनारे पर पाई गई। यहाँ श्रीबाबा दो-चार दिन ही रुके थे। मूल द्वारिका से सोमनाथ महादेव मन्दिर करीब 6-7 कि. मि. ही है, जो वेरावल शहर में स्थित है। ज्योतिर्लिंग सोमनाथ सब ज्योतिर्लिंगों से पुरातन है और इतिहास के अनुसार सबसे अधिक समृद्ध तीर्थस्थान रहा है, जिसकी प्रसिद्धि विश्वभर में व्याप्त रही तथा जिसको सत्रह बार लूटा गया, विक्षिप्त किया गया (सबसे आखीरबार औरंगजेब ने लूटपाट का कुकृत्य किया था)। सारा इतिहास इस मन्दिर के भव्य प्रांगण में आजकल एक Light-n-Sound Program के द्वारा नितरोज सन्ध्याकाल में दिखाया जाता है। बाबा सोमनाथ की महिमा त्रेतायुग से आज पर्यन्त बनी हुई है। भगवान श्रीकृष्ण ने इसी पवित्र तीर्थस्थान पर ‘जर’ नामक भील जनजाति के शिकारी के भ्रमवश तीर मारे जाने का निमित्त लेकर अपनी लीलाएँ समाप्त कर दी थी। इस भालका स्थित तीर्थस्थान पर 5200 वर्ष पुराना पीपल का वृक्ष है जो कभी नहीं सूखता। इसी स्थान के निकट बलराम जी की गुफ़ा भी है (चित्र 5)। तीर लगने के बाद श्रीकृष्ण बलरामजी से मिलने और मंत्रणा करने यहाँ आये और हिरणा नदीतट के इस साधना क्षेत्र में अंतिम दर्शन देकर निजधाम में समाहित हो गये। तत्काल बलरामजी भी पृथ्वी में अंतर्ध्यान हो गये।
इस सोमनाथ पाटन तीर्थक्षेत्र की इतनी महिमा है कि त्रेतायुग में भगवान परशुराम जी ने एक हजार वर्ष तक यहीं तपस्या भी करी थी (चित्र 6)। NTB में इन दिव्य पुरातन तपस्थलों को इतने विस्तार से नहीं बताया है किन्तु यह माना जाना अवश्य उपयुक्त और मान्य होगा कि श्रीबाबा अवश्य इन युगों पुराने पवित्र तीर्थस्थलों पर गये होंगे और इन स्थानो की महिमा करी होगी।